Saturday 3 December 2016

नास्तिक मत खंडन भाग १

नास्तिक विचार =
आप आस्तिक लोग ईश्वर के होने में यह अनुमान करते है की - संसार बनायीं हुए चीज है , यह बिना किसी के बनाये बन नहीं सकते, इसलिए जो  इसका बनाने वाला है, वही ईश्वर है | आपकी इस बात में कोई बल नहीं है, क्यूंकि हम स्पष्ट ही देखते है की-- प्रतिवर्ष हजारो लाखो की संख्या में जंगलो में वृक्ष-वनस्पति-औषधि-लताएँ-कन्द-मूल-फलादि- अपने आप उत्त्पन्न होते है, बढ़ाते है, और नष्ट हो जाते है | इनका कोई कर्त्ता दिखाई नहीं देता, वैसे ही संसार के पृथ्वी , सूर्य , चन्द्रमा , आदि पदार्थ अपने आप बनते है , चलते है और नष्ट हो जाते है | इसको बनाने , चलने के लिए किसी कर्त्ता की आवश्यकता नहीं है | इसलिए आपका काल्पनिक ईश्वर असिद्ध है |

आस्तिक के विचार =

            पहले यह विचारने का विषय है की क्या कोई कार्य वस्तु अपने आप ही बन जाती है या किसी कर्त्ता के द्वारा बनाने से ही बनती है ? संसार में हम प्रत्यक्ष ही देखते है की -- मकान आदि कार्य वस्तु के लिए मिस्त्री-मजदूर ( निमित्त- कारन = कर्त्ता ) की आवश्यकता पड़ती है | बिना मिस्त्री-मजदूर के मकान  कदापि नहीं बन सकता | फिर भला पृथ्वी , सूर्य , चन्द्र आदि कार्य वस्तुओ के लिए निमित्त कारन = कर्त्ता = ईश्वर की आवश्यकता क्यों नहीं पड़ेगी ? अवश्य पड़ेगी | प्रत्येक कार्य के लिए निमित्त कारन = कर्त्ता का नियम पाया जाता है |
           जैसे पैन , पुस्तक, मेज , कुर्सी , पालन , पंखा, रेडिओ , घडी मोटर, रेल, हवाई जहाज आदि वस्तुओ को बनाने वाले कर्त्ता के रूप में मनुष्य लोग हो होते है | क्या ये चीजे बिना बनाने वाले के अपने आप बन सकती है? कदापि नहीं | " बिना बनाने वाले के कोई वास्तु अपने आप नहीं बन सकती " इसी नियम को प्राचीन भारतीय महान वैज्ञानिक महर्षि कणाद ने भी स्वीकार किया है -- कारणाऽभावात्  कार्यऽभावः || - वैशेषिक दर्शन १-२-१
           आपने पृथ्वी आदि कार्य वस्तुओ के अपने आप बन जाने की पुष्टि में जंगल के वृक्षों आदि का जो उद्धरण दिया है, वह ठीक नहीं है | क्यूंकि उद्धरण वह देना चाहिए, जो पक्ष और विपक्ष दोनों को सामान रूप से स्वीकार हो , जैसा न्याय दर्शन कार महर्षि गौतम ने अपने ग्रन्थ न्याय दर्शन ( १-१४-२५ ) में लिखा है " लौकिक  परीक्षकाणाम्  यस्मितर्थे बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्तः || "
अर्थ - जिस वस्तु को सामान्य व्यक्ति और विद्वान व्यक्ति दोनों एक स्वरुप में स्वीकार करते ही वह दृष्टांत  या उद्धरण कहलाता है | जैसे ' अग्नि जलती है ' इसे सब मानते है , आप भी और हम भी |
        हम जंगल के वृक्षों को अपने आप उत्त्पना हुवा नहीं मानते | उनका भी कोई कर्त्ता है, और वह है सर्वव्यापक , सर्वज्ञ , सर्वशक्तिमान ईश्वर | जैसे हमने अपने पक्ष की पुष्टि में जो मकान आदि के उद्धरण दिए है, वे आपको भी मान्य है , वैसे ही आपको , अपने-आप बनी हुए वस्तु का ऐसा उद्धरण देना चाहिए, जो हमे भी मान्य हो | हमारी दृष्टी में तो संसार में आपको अपने-आप बनी हुए वस्तु का एक भी उद्धरण नहीं मिलेगा | क्योंकि यह सत्य सिद्धांत है की अपने आप कोई वस्तु बन ही नहीं सकती | जब बन ही नहीं सकती , तो उद्धरण भी नहीं मिलेगा | जब उद्धरण ही नहीं मिलेगा , तो आपके पक्ष की सिद्धि कैसे होगी ? क्योंकि बिना उद्धरण के तो कोई पक्ष सिद्ध हो नहीं सकता | इसलिए उद्धरण के आभाव में आपका पक्ष सिद्ध नहीं होता |
          जो आपने सूर्यादि पदार्थो के बिना किसी कर्त्ता के अपने आप बन जाने की बात कही है, इस पर गम्भीरता से विचार करे | यह तो आप भी मानते है की पृथ्वी आदि पदार्थ जड़ है और प्रकृति के छोटे छोटे परमाणुओ के परस्पर मिलने से बने है | ये सब परमाणु भी जड़ है, इनमे ज्ञान या चेतना तो नहीं , फिर ये स्वयं आपस में मिलकर पृथ्वी आदि के रूप में कैसे बन सकते है ? इस में चार पक्ष हो सकते है -

१) यदि आप कहो की इन सब परमाणुओ में परस्पर मिलकर पृथ्वी आदि के रूप में बन जाने का स्वभाव है; तो एक बार मिलकर ये परमाणु पृथ्वी आदि पदार्थो का रूप धारण तो कर लेंगे परन्तु अलग कभी नहीं होंगे अर्थात प्रलय नहीं होगी | क्यूंकि एक जड़ वस्तु में एक काल में दो विरुद्ध धर्म (मिलना और अलग-अलग होना ) स्वाभाविक नहीं हो सकते |

२) यदि कहो की इन सब परमाणुओ में अलग-अलग रहने का स्वाभाव है तो फिर ये परस्पर मिलकर पृथ्वी आदि का रूप धारण कर ही नहीं सकेंगे, क्योंकि कोई भी वस्तु अपने स्वाभाव से विरुद्ध कार्य नहीं कर सकती | ऐसी स्तिथि में संसार कैसे बनेगा ?

३) यदि कहो की कुछ परमाणुओ में मिलने का स्वाभाव है और कुछ में अलग-अलग रहने का, ऐसी अवस्था में , यदि मिलने वाले परमाणुओ की अधिकताहोगी , तब संसार बन जायेगा परन्तु नष्ट नहीं होगा | यदि अलग-अलग रहने वाले परमाणुओ की अधिकता होगी तो संसार बनेगा नहीं, क्योंकि जो परमाणु अधिक होंगे , उनकी शक्ति अधिक होगी और वे अपना कार्य सिद्धि कर लेंगे |

४) यदि कहो की मिलने व् अलग-अलग रहने वाले दोनों प्रकार के परमाणु आधे-आधे होंगे , तो ऐसी अवस्था में भी संसार बन नहीं पायेगा | क्योंकि दोनों प्रकार के परमाणुओ में सतत संघर्ष ही चलता रहेगा .

इन चारो में से कोई भी पक्ष संसार में पदार्थो के बनने और बिगड़ने की सिद्धि नहीं कर सकता, जो की संसार में प्रत्यक्षादि प्रमाणों से उपलब्ध है | यदि आप कहो की स्वचालित यन्त्र (automatic machine ) के समान प्रकृति के परमाणुओ का अपने आप संसार रूप में बनना व बिगड़ना चलता रहता है, तो आपका यह दृष्टांत भी ठीक नहीं, क्योंकि स्वचाित यन्त्र को भी तो स्वचालित बनाने वाला कोई चेतन कर्त्ता होता ही है | अतः' बिना कर्त्ता के कोई कार्य वस्तु नहीं बनती ' यह सिद्धांत अनेक उद्धरणों से , अच्छे प्रकार से हमने सिद्ध कर दिया है |
            अब आप महान भौतिक वैज्ञानिक महाशय न्यूटन के अभिप्रेरणा नियम ( law of motion ) के साथ भी अपनी स्वाभाव से संसार बन जाये की बात मिलकर देख लीजिये | नियम यह है की -
( a body in state of rest or of motion will continue in state of rst or motion until an external force is applied )
   अर्थात - कोई भी स्थिर पदार्थ तब तक अपनी स्थिर अवस्था में ही रहेगा जब तक किसी बाह्य बल से उसे गति न दी जाये , और कोई भी गतिशील पदार्थ तबतक अपनी गतिशील अवस्था में ही रहेगा जबतक किसी बाह्य बल से उसे रोक न जाये |
         अब प्रश्न यह है की संसार के बनने से पूर्व परमाणु यदि स्थिति की अवस्था में थे , तो गति किसने दी ? यदि सीधी गति की अवस्था  में थे , तो गति में परिवर्तन किसने किया, की जिसके कारन ये परमाणु संयुक्त होकर पृथ्वी आदि पदार्थ के रूप में परिणत हो गए | स्थिर वस्तु को गति देना और गतिशील वस्तु की दिशा बदलना ये दोनों कार्य बिना चेतन कर्त्ता के हो ही नहीं सकते | महाशय न्यूटन ने अपने नियम में इस कर्त्ता को भय बल = (external force ) के नाम से स्वीकार किया है |
         संसार की घटनाओ का गंभीरता से अध्ययन करने पर पता चलता है की -- संसार की विशालता , विविधता , नियमबद्धता , परस्पर ऐक्यभाव , सुक्ष्म रचना कौशल , निरंतर संयोग-वियोग , प्रयोजन की सिद्धि आदि -- इन चेतना-रहित (जड़) परमाणुओ का कार्य कदापि नहीं हो सकता, इन सब के पीछे किसी सर्वोच्च बुद्धिमान , सर्वव्यापक , अत्यतं शक्तिशाली , चेतन कर्त्ता शक्ति का ही हात सुनिश्चित है , उसी को ' ईश्वर' नाम से कहते है |

            हम आप स्वभाववादियो ( naturalists ) इसे पूछते है की प्रकृति खेत में गेहू , चना , चावल तक बनकर ही क्यों रुक गई ! गेहूं से आटा, फिर आटे से रोटी तक बन कर हमारी थाली में क्यों नहीं आई ! गाय-भैस  के पेट में दूध तक ही क्यों सिमित रही; दूध से खोया , फिर खोये से बर्फी तक क्यों नहीं बनी ! कपास तक ही प्रकृति सिमित क्यों रही , उसकी रुई , फिर सूत , वस्त्र और वस्त्र से हमारी कमीज-पतलून तक क्यों नहीं बनी ! आपके पास इसका कुआ समाधान है ?
           हमारे पक्ष के अनुसार इसका समाधान यह है की कार्य वस्तुओ के बनाने वाले कर्त्ता दो है एक ईश्वर और दूसरा जीव ( मनुष्यादि प्राणी ) इनका कार्य-विभाजन इस प्रकार से है की -- प्रकृति परमाणुओ से पांच भूतो को बनाना और फिर इन भूतो से वृक्ष वनस्पति आदि को बनाना, यहाँ तक का कार्य ईश्वर का है , इससे आगे का कार्य मनुष्यो का है | जैसे की नदी बनाने का कार्य ईश्वर का है नदी से नहरे निकलने का कार्य मनुष्य का | मिट्टी बनाने का कार्य ईश्वर का है , मिट्टी से ईंट बनाकर मकान बनाने का कार्य मनुष्यो का है | पेड़ बनाने का कार्य ईश्वर का है और पेड़ से लकड़ी काटकर मेज-कुर्सी , खिड़की-दरवाजे बनाने का कार्य मनुष्यो का है | इसी प्रकार से घेऊ , चना , कपास आदि बनाना मनुष्यो का कार्य है | कार्य कोई भी ही , हर जगह हर कार्य में कर्त्ता का होना आवश्यक है |
         इसलिए "संसार अपने-आप बन गया, इसका कर्त्ता कोई नहीं है " यह पक्ष किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं होता | तर्क प्रमाण से यही सिद्ध होता है की " प्रत्येक कार्य-वस्तु के पीछे कोई न कोई चेतन कर्त्ता अवश्य ही होता है, संसार में कोई भी वस्तु अपने आप नहीं बनती |" इसी नियम के आधार पर ' संसार का भी कर्त्ता होने से ईश्वर है |

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नास्तिक मत खंडन भाग... ३

नास्तिक मत

               यह दिखाई देने वाला संसार न तो किसी ने बनाया है, और न ही यह अपने आप बना है ; न तो इसको कोई नष्ट करेगा और न ही कभी यह अपने आप नष्ट होगा | यह अनादि काल से ऐसे ही बना-बनाया चला आ रहा है और अनंत काल तक ऐसे ही चलता रहेगा | इस संसार के बनाने वाले किसी कर्ता को, किसी ने कभी नहीं देखा | यदि देखा होता तो मान भी लेते की हाँ, इसका कर्ता ईश्वर है | इसलिए कर्ता न दिखाई देने से यही बात ठीक लगाती है की यह संसार बिना कर्ता के अनादि काल से ऐसे ही बना-बनाया चला आ रहा है और आगे भी अनंतकाल तक चलता रहेगा |

आस्तिक विचार

                  प्रत्येक वस्तु के कर्ता का निर्णय केवल प्रत्यक्ष देखकर ही नहीं होता, बल्कि अनुमान आदि प्रमाणों से भी कर्ता का निर्णय होता है । बाजार से हम प्रतिदिन ऐसी अनेक वस्तुएँ लाते हैं, जिनको कारखानो, फैक्ट्रीयो , आदि में बनाया जाता हैं | इन वस्तुओ को बनाते हुए , कारीगरों को हम नहीं देख पाते हैं , तो क्या हम उन सबको बनी-बनाई मान लेते हैं ? जैसी की पैन, घडी, रेडिओ, टेप रिकॉर्डर , टेलीविजन , कार आदि | कोई भी बुद्धिमान इन वस्तुओ को बनी-बनाई नहीं मानता हैं | ऐसी अवस्था में पृथ्वी आदि विशाल ग्रह-उपग्रहो को बनाते हुए यदि हमने नहीं देखा तो यह कैसे मान लिया जाय की ' ये बने बनाए ही है' | जैसे पैन , घडी , रेडिओ , कार आदि को बनाने वाले करगीर, कारखानो में इनको बनाते है , वैसे ही पृथ्वी आदि पदार्थो को भी कोई न कोई अवश्य ही बनता है | जो बनाता है , वही ईश्वर है |

                     किसी भी व्यक्ति ने अपने शरीर को बनते हुए नहीं देखा तो क्या यह मान लिया जाए ' हम सब का शरीर सदा से बना-बनाया है यह कभी नहीं बना !' ऐसा तो मानते हुए नहीं बनता | क्योंकि हम प्रतिदिन ही दुसरो के शरीरों को जन्म लेता हुवा देखते है, और ऐसा अनुमान करते है की जन्म ९-१० मास पहले यह शरीर नहीं था | इस काल में इस शरीर का निर्माण हुआ है | जबकि हमने शरीर को बनते हुए नहीं देखा, फिर भी इसको बना हुआ मानते है| ठीक इसी प्रकार से पृथ्वी आदि पदार्थो को भी यदि बनते हुए न देख पाये , तो इतने मात्र से यह सिद्ध नहीं हो जाता की पृथ्वी आदि संसार के पदार्थ सदा से बने-बनाये है | जैसी हमने अपने शरीरो को बनते हुए नहीं देखा , फिर भी इन्हें बना हुआ मानते है , ऐसे ही पृथ्वी आदि पदार्थ भी हमने बनते हुए नहीं देखे , परन्तु ये भी बने है , ऐसा ही मानना चाहिए |
                       ' पृथ्वी बनी है ' इसे हम इस प्रकार भी समझ सकते है | ' जो भी वस्तु टूट जाती है , वह वस्तु कभी न कभी अवश्य ही बनी थी , ' यह सिद्धांत है | जैसे गिलास के किनारे पर एक हलकी चोट मारने से गिलास का एक किनारा टूट जाता है और यदि गिलास पर बहुत जोर से चोट मारी जाये , तो पूरा गिलास चूर-चूर हो जाता है | वैसे ही पृथ्वी के एक भाग पर फ्हावड़े-कुदाल से चोट मरने पर इसके टुकड़े अलग हो जाते है, तीव्र विस्फोटकों = (Dyanamite) आदि साधनो के द्वारा जोर से चोट करने पर बड़े-बड़े पहाड़ आदि भी टूट जाते है | इसी प्रकार अणु-परमाणु बमों आदि से बहोत जोर से चोट मरी जाये, तो पूरी पृथ्वी भी टूट सकती है | इससे सिद्ध हुआ की गिलास जैसे टूटा था --- तब जबकि वह बना था ; इसी प्रकार से पृथ्वी भी यदि टूट जाती है , तो वह भी अवश्य ही बनी थी | और इसको बनाने वाला ईश्वर ही है | इसी बात को हम पांच-अवयवों के माध्यम से निम्न प्रकार से समझ सकते है |

१ प्रतिज्ञा --- पृथ्वी आदि बड़े-बड़े ग्रह उत्त्पन हुए है |
२ हेतु -- तोड़ने पर टूट जाने से , जो वस्तु टूटती है वह बनी अवश्य थी |
३ उद्धरण -- गिलास के समान |
४- उपनय -- जैसे गिलास टूटता है, वह बना था ; वैसे ही पृथ्वी भी टूटती है, वह भी बनी थी |
५ निगमन --- क्योंकि पृथ्वी आदि ग्रह तोड़ने से टूट जाते है , इसलिए वे बने है |

                           विज्ञानं का यह सिद्धांत है की संसार सूक्ष्मतम भाग परमाणु ही केवल ऐसा तत्त्व है, जिसको न तो उत्त्पना किया जा सकता है और न ही नष्ट किया जा सकता है औए न ही नष्ट किया जा सक्ता है -A matter can-neither be produced and nor be destroyed . इस सिद्धांत के आधार पर परमाणु से स्थूल संसार से मिलकर बने है | और क्योंकि वे मिलकर बने है , इसलिए नष्ट भी हो जाते है | इससे सिद्ध होता है की पृथ्वी भी छोटे छोटे परमाणुओ से मिलकर बनी है , यह सदा से बनी-बनायीं नहीं है | और जब पृथ्वी बनी है , तो इसका बनाने वाला भी कोई न कोई अवश्य है | " कोई वस्तु अपने आप नहीं बनती " यह बात हम पिछले प्रकरण में = ( नास्तिक मत खंडन भाग २) में सिद्ध कर चुके है | इसलिए पृथ्वी आदि संसार के सभी पदार्थो को बनाने वाला ईश्वर ही है  , भले ही हमने ईश्वर को पृथ्वी आदि पदार्थ बनाते हुए न भी देखा हो |
                       पृथ्वी की उम्र के सम्बन्ध में भी विज्ञानं का मत देखिये -- विज्ञानं के मतानुसार पृथ्वी की उम्र लगभग ४ अरब ६० करोड़ वर्ष बताई गयी है | यह परिमाण पुरानी चट्टानों में विद्यमान यूरेनियम आदि पदार्थो के परीक्षण के पश्चात निकला गया है |
                    According to their deductions based on the study of rocks, the age of the Earth is estimated to be around 4600 million years. - MANORAMA. A Handy Encyclopaedia (year book 1983). page-105 , Science and Technology Section .
                       अनेक प्रकार के छोटे-छोटे उल्का पिण्ड आकाश में टूटते रहते है | इन उल्का पिंडो के खंड , जो पृथ्वी पर आकर गिरे है , भारतीय व विदेशी संग्रहालय में देखे जा सकते है | ये उल्का पिण्ड पृथ्वी के समान ही और मंडल के सदस्य है , और सूर्य के चारो और चक्कर लगते रहते है | जब ये उल्का पिण्ड सौर मंडल के सदस्य होते हुए टूट जाते है, तो पृथ्वी भी और मंडल का सदस्य होते हुए क्यों न टूटेगी ? इससे भी यह सिद्ध होता है की यह संसार सदा से बना बनाया नहीं है , बल्कि टूटता है और बनता है | इस समस्त संसार का बनाने और बिगड़ने वाला सर्वशक्तिमान = (omnipotent), सर्वव्यापक = (Ominipresent), सर्वज्ञ = (Omniscient) ईश्वर ही है |

नास्तिक मत का खंडन .. २

नास्तिक विचार

इस बात को हम प्रत्यक्ष ही जानते है की राजा के न होने पर नगर और समाज में अन्याय , चोरी , जारी, हिंसा , लड़ाई , झगड़े से अव्यवस्था उत्त्पन्न हो जाती है | राजा हो तो नहीं होती | विद्यालय में अध्यापक के न होने पर कक्षा में बच्चे शोर मचाते है. मार-पिटाई करते है; कक्षा में अध्यापक के होने पर नहीं करते धार्मिक , विद्वान , सभ्य माता-पिता के घर में न होने पर लड़के लोग परस्पर झगड़ते है, सिगरेट शराब पिते है , जुआ खेलते है , आचारहीन-स्वछंद बन जाते है , किन्तु माता-पिता के होने पर उपर्युक्त दुष्ट कर्म नहीं करते | इस प्रकार संसार का स्वामी , राजा , संचालक , न्यायाधीश कोई ईश्वर होता तो संसार में हिंसा , चोरी , जारी , अन्यायादि के रूप में जो अव्यवस्था फैली हुए है , वह नहीं होती | चूकी अव्यवस्था स्पष्ट दिख रही है , इससे तो यह सिद्ध होता है की ईश्वर नाम की कोई सत्ता नहीं है |

आस्तिक विचार

संसार में जो अव्यवस्था दिखाई देती है , यह मनुष्यो द्वारा फैलाई गयी है | इसके आधार पर आपका यह कहना उचित नहीं है कि---- " ईश्वर कि संसार में कोई सत्ता नहीं है , यदि ईश्वर होता , तो यह अव्यवस्था नहीं होती |" क्योंकि मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है | अपने अज्ञान , हठ, दुराग्रह , स्वार्थ आदि दोषो के कारण चोरी , जारी , हिंसा , अन्याय आदि बुरे कर्मो को करता है | यदि मनुष्य कर्म करने में ईश्वर के अधीन होता , तो संसार में कोई भी अव्यवस्था-रूप कर्म नहीं होता | इसलिए संसार में जो अव्यवस्था दिखाई देती है , उसका सत्य कारन ' मनुष्यो कि कर्म करने कि स्वतंत्रता होना ही है ', न कि ईश्वर कि सत्ता का न होना |

आपने अपने पक्ष कि पुष्टि में राजा का उद्धरण देकर अर्थापत्ति से यह दर्शाने का प्रयास किया है कि राजा के होने पर, नगर में चोरी, जारी , हिंसा से अव्यवस्था नहीं होती ऐसी बात नहीं है | न्यायकारी बलवान, धार्मिक , विद्वान , आदर्श राजा के तथा उसके बनाये संविधान एवं दण्ड-व्यवस्था होते हुए भी, राज्य में लोग स्वतंत्र से चोरी , जारी , हिंसा आदि कार्यो को कर लेते है | यद्यपि उनको यह ज्ञात होता है कि यह कार्य अनुचित है , संविधान विरुद्ध है तथा प्रतिफल में दण्ड भी मिलेगा | ऐसा प्रत्यक्ष देखते हुए भी यह नहीं कहते कि नगर का राजा नहीं है |

इसी प्रकार से ' अध्यापक-विद्यार्थी ' तथा ' माता-पिता व लड़को ' के विषय में दिए दृष्टांत को भी समझाना चाहिए | सभ्य, विद्वान , धार्मिक , गुरुजन तथा माता-पिता के, कक्षा तथा घरमे न रहने पर ही विद्यार्थी व बच्चे अव्यवस्था नहीं उत्त्पना करते है , बल्कि गुरुजन तथा माता-पिता के होते हुए भी अव्यवस्था करते है | उच्श्रृंखल , अनुशासनहीन , दुष्ट विद्यार्थी व् बच्चे तो , गुरुजन तथा माता-पिता के द्वारा समझने, भय दिखने तथा दण्ड देने पर भी , परस्पर झगड़ते है, तोड़ फोड़ करते है, सिगरेट शराब पिते है जुआ खेलते है , व आचरहीनता सम्बन्धी कार्यो को करते है | तब क्या कक्षा में अध्यापक या घर में माता-पिता कि सत्ता का निषेध किया जा सकता है ? ऐसा तो मानते हुए नहीं बनता |
वास्तव में सिद्धांत यही है कि प्रत्येक मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है | कर्म करते हुए को राजा , गुरु , माता-पिता आदि पकड़ नहीं सकते | हाँ , दुष्ट कर्म कर लेने पर दण्ड देते है अथवा अच्छा कर्म करने के पश्चात पुरस्कार भी देते है | ऐसी ही स्थिति संसार में ईश्वर के विषय में जाननी चाहिए |
इस संसार का राजा , स्वामी -परमपिता ईश्वर है | ऐसे सर्वज्ञ , सर्वशक्तिमान , सर्वव्यापक , न्यायकारी पिता के होते हुए भी मनुष्य रूप पुत्र लोग अपनी स्वतंत्रता से हिंसा , चोरी , जारी अन्याय आदि कर्मोको करते है | यद्यपि वेद के माध्यम से ईश्वर ने विहित-निषिद्ध (कर्त्तव्य-अकर्तव्य)­ कर्मो का निर्देश इस सृष्टि के आदि में किया था , जो अबतक हमारे पास विद्यमान है | मनुष्यो के हृदयो में बैठा हुवा ईश्वर भाई , शंका , लज्जा उत्तपन्न करके पाप कर्मो को न करने कि प्रेरणा देता है | कुत्ता , बिल्ली , गधा , बैल , सूअर आदि दुखमय योनियों में पाप का फल जीवो को भोगते हए भी दर्शाता है | फिर भी मनुष्य इन सब बातो के होते हुए भी अपनी स्वतंत्रता से अन्यायादि दुष्ट कार्य कर लेता है | ईश्वर ने मनुष्यो को कर्म करे में स्वतंत्र छोड़ा हुवा है | कर्म करते समय उसका हाथ नहीं पकड़ता | हाँ , कर्म कर लेने पर न्याय-अनुसार फल अवश्य देता है |

ईश्वर कि सत्ता तो सिद्ध ही है, क्योंकि उसे कार्यो में सर्वत्र व्यवस्था ही पायी जाती है | ईश्वर कार्य है -- संसार को बनाना चलना , समय आने पर इसे नष्ट कर देना और सब जीवों के कर्मो का ठीक-ठीक फल देना | ईश्वर सूर्य, चन्द्र आदि को बनाता है | क्या इन्हे ईश्वर से अतिरिक्त कोई और बना सकता है | ईश्वर इन सूर्य , चन्द्र आदि को बनाकर चलाता भी है | ये सूर्यादि पदार्थ क्या एक मिनट के लिए भी चलते-चलते रुके है ? ईश्वर का कार्य है बीजो को बनाना , बीजो से वनस्पतिओ को बनाना | आम से आम होता है , केले से केला , गेहूँ से गेहूँ और चने से चना | ऐसे ही ईश्वर मनुष्यादि  प्राणियों के शरीरों को बनाता है | मनुष्य से मनुष्य और पशु से पशु का शरीर बनता है | क्या कभी इन कार्यो में फेर-बदल या अव्यवस्था होती है ? इसी प्रकार से संसार को नष्ट करना भी ईश्वर का ही कार्य है | एक समय आयेगा , जब सूर्य कि गर्मी समाप्त हो जायेगी , पृथ्वी में उत्पादन शक्ति नहीं रहेगी , तब संसार मनुष्यादि प्राणियों के लिए उपयोगी नहीं रहेगा | उस अवस्था में ईश्वर इसे नष्ट कर देगा | जीवोंको , अपने शुभ अशुभ कर्मोंके अनुरूप ही मिली मनुष्य , पशु, किट, पतंग आदि विभिन्न योनिया ईश्वर के न्याय को सिद्ध कर रही है | अतः ईश्वर के कार्यो में सर्वत्र व्यवस्था ही दिखती है |

ईश्वर का कार्य-क्षेत्र अलग है और जीवों का कार्यक्षेत्र अलग | ' ईश्वर के कार्यो को जीव नहीं कर सकता और जीवों के कार्यों को ईश्वर नहीं करता ' इस सिद्धांत कि चर्चा हम नास्तिक मत का खंडन भाग २ में कर चुके है | इसलिए जैसे राजा द्वारा संविधान बता देने पर भी नागरिक लोग अपनी स्वतंत्रता से अनुचित कार्य कर लेते है , इससे राजा कि सत्ता का निषेध नहीं होता | ऐसे ही ईश्वर द्वारा भी 'वेद' रूपी संविधान देने पर तथा मन में भय, शंका, लज्जा को उत्त्पन्न करने पर भी मनुष्य लोग अपनी स्वतंत्रता से संसार में चोरी, जारी, छल , कपट अन्याय आदि करके अव्यवस्था फैलाये, तो इसे ईश्वर कि सत्ता का निषेध नहीं किया जा सकता |

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